Friday, December 16, 2011

“ ग़ज़लों को तुम चोरी कर लो ”

ग़ज़लों को तुम चोरी कर लो, नाम तो उन तक जायेगा,
और लब्ज़ करेंगे ऐसा जादू, काम मेरा हो जायेगा |

बेमतलब तो नहीं लिखता मैं आज भी ज़माने में,
कोई पढ़ेगा, कोई सुनेगा, कोई तो अपनाएगा |

सोच लोगे, देख लोगे, मान लो हथिया भी लिया,
जो जन्नत में भी रूठ गए, तो उनको कौन मनाएगा ?

सुन खुदा; ना करना रहम, उसकी किसी करतूत पर,
लगी ज़रा सी चोट अगर, माँ को तो दिखलाएगा |

नक्काशी भी ताजमहल की, सिला दे गयी मजदूरों को,
भूख है पर हाथ नहीं, अब खाना कौन खिलाएगा ?

नाहक ही ढोते हो दौलत, पत्थर खुश करने को तुम,
हाथ में जो ले लो रोटी, भेष बदल चला आयेगा |

Thursday, December 15, 2011

पुष्प नहीं खिलते हैं, बंद कमरों में...


कल मैं अखबार के,
कोई चौथे पन्ने एक लेख पढ़ रहा था,
कुछ शेष था, कि
एक गहरे मंथन में ढूब गया था |

दिल्ली में हर रोज,
कुछ कलियाँ ,
कुछ आवारा भँवरों का शिकार हो रही हैं,
सह पायीं वेदना तो सह गयीं,
अन्यथा,
खुली आँखों से, खुले बदन,
खुली सड़कों पर सो रही हैं |

फिर सोचा,
क्या इतना ‘खुलापन’ ठीक है ?
या फिर ये भी पश्चिम से आई,
सभ्यता की सीख है |
कुछ तो है,
सच में हाँ, कुछ तो है, 
ये “स्लटवाक” यूँ ही तो नहीं हो रहीं ,
या फिर,
खुली आँखों से, खुली सड़कों पे,
खुले बदन, 
ये कलियाँ यूँ ही तो नहीं सो रहीं |

खैर छोडो,
कारन कोई भी हों,
साल, काल कोई भी हों,
जिम्मेदार है आवारा भँवरे ,
आज नहीं,
सदा से |
शायद फूलों के निर्माता ने ही उन्हें बनाया था,
प्रकृति में हों सकें और जन्म,
क्या मात्र इसीलिए,
फूलों को सजाया था ?
पर आवारा कैसे हों गए ये?
विषय है शोध का,
कोई अवतार क्यूँ नहीं लेता,
समय है क्रोध का |
आवारा तो रावन भी न था,
जैसा मैंने रामायण में पढ़ा है ,
क्यूँ शेर के दांत गिनने वाला,
दु:शासन बना खड़ा है ?

छोटा नहीं,
बड़ा दु:शासन |
जो किसी दुर्योधन के अधीन,
नहीं रहता है,
बस रोज नई द्रोपदियों का,
मान मर्दन करता है,
बस कुछ क्षणिक,
दैहिक सुख के लिए,  
फिर चाहे वो जन्मित कली हों या ,
परागहीन पुष्प |

आखिर कब तक?
कब तक,
ऐसे आवारा भँवरे ??
कब तक ???
दमन तो संस्कारी रावण का भी हुआ था न,
और होता है आज तक,
हर पर्व पर,
आवारा भँवरों को जलाने का भी,
पर्व बनाओ,
हर साल न सही,
एक बार तो...

क्यूँ कि,
पुष्प नहीं खिलते हैं,
बंद कमरों में...

Tuesday, December 13, 2011

तब भी एक जादुई घड़ा था

मेरे फसानों में तब भी एक जादुई घड़ा था,
कोई लिख रहा था खत, कि जवाब इसमें पड़ा था |

कतारें ख़त्म हो गई थीं मेरे सच्चे गवाहों की,
फिर भी ज़ालिम, शक की इन्तहा पे अड़ा था |

जिस पत्थर को रखा था मैंने इबादत के लिए,
शौक भी देखो अनोखा, उनके पावों में जड़ा था |

प्यार थोडा कम किया अपने एक बेटे को शायद ,
फिर क्यूँ दूजा , घर बाँटकर सबसे लड़ा था ?

इंसान न सही गाँव में कुछ मवेशी तो बचते,
अब ना सुनूंगा तेरी खुदा, बादल बनाये खड़ा था !!

Sunday, December 11, 2011

तुम तो भूल गई थी शायद : ( कविता एक अंतर्द्वंद में )


काश कि, तुमने खुद को
एक मीठी ग़ज़ल बनाया होता |
कुछ छूट रहे रिश्तों की,
परिभाषाओं को सजाया होता |

क्यूँ गढ़ती और लिखती रहीं ?
उत्पीडन, ओज- स्वर,
भ्रष्ट लोगो की निंदाओं की कहानी | 
काश लिखा होता,
शास्वत प्रेम- काव्य,
तो मिली होती,
किसी के अतुल्य प्रेम की निशानी  |
  

पर तुम तो भूल गई थी शायद ,
कि एक स्त्री थी तुम....
जिसकी कुछ मर्यादाएं होती है,
जिससे कुछ आशाएं होती है |
स्त्री जो सजती है, संवरती है,
नित पुरुष के बनाये सांचों में ढलती है | 

शायद स्त्री,
पुरुषार्थ के अधीन,
घर-गृहस्ती सजाने का
सामान होती है |
और यदि यह मार्ग न चुन सके,
इच्छाओं का दमन न कर सके,
तो अग्नि परीक्षा का आयाम होती है |

स्त्री, जो शायद इसलिए,
कोमल होती है,
ताकि पुरूषों द्वारा मनचाहे ढंग से मोड़ी जाये |
और यदि मार खाकर,
कुछ कठोरता आ भी गयी हो..
तो फिर देह ही नहीं अंतर्मन तक तोड़ी जाये |
    
क्या समय रहते तुम्हें
समझ आने लगा था ?
कि स्त्री,
जब तक लता, वेल, वल्लरी रहती है, 
अख़बारी समाज की कुटिल नज़र सहती है |

और इसीलिए तुम,
अपने भावों में करती रही,
समाज की हर व्यवस्था पर क्रोध |
लिखती रही,
पुरुष- प्रधान अनुसन्धान  पर शोध |

शोध जो ऐसे,
सीता, अनुसुइया की पूरी कहानी पढ़ रहे थे |
और शायद
पुरुषार्थ की,
सच्ची परिभाषाएँ गढ़ रहे थे |

पर तुम तो भूल गई थी ..
कि एक स्त्री थी तुम.....
तुम्हें परिभाषाएं बदलने का,
अधिकार नहीं था |
तुम्हारा हर शोध;
क्या निरंतर 
सरपंची-पौरुष पर वार नहीं था ? 

तुम भूल गयी थी शायद,
कि एक स्त्री थी तुम...
क्या अब भी तुम्हारा भूगोल
बिगडना तय नहीं था ?
क्यूँ तुम्हें चीत्कार मचाती
ज्यामिति का भय नहीं था ?

तुम भूल गयी थी शायद,
कि एक स्त्री थी तुम........

सादर : अनन्त भारद्वाज  


Wednesday, November 30, 2011

मैं भी तुम्हारी प्रतीक्षा में,


कई बार,
तुमने देखे होंगे,
त्यौहार के दिनों में,
अपनी लक्ष्मी का स्वागत करते 
खुद से थोड़ी दूर बनी रंगोली में रंग भरते,
सैंकडों स्वागत द्वार..     

और,
अक्सर
कई बार तो ,
राह चलते मिली होगी,
बरसात से पहले ,
पानी की व्याकुलता में जी रही ,
अपने फटे जख्मों को सीं रही , 
वो अभागिन धरती , 

पतझर का मौसम भी,
क्या याद है तुम्हें,
और वो अचानक से,
घर की बालकनी में,
छोटा सा पंक्षी,
जो गाता था गीत वियोग के,
इतनी तंगी में भी लाता था आंसू शोक के,

और हाँ,
वो सीमाहीन,
अनगिनत नदियों का,
अथाह जल लिए,
विशाल समुन्दर ,
आखिर वीरान रातों में,
अपने जल पर कितना दंभ भरता होगा ?
खुद की वीरानी खुद ही तो सुनता होगा..

ठीक वैसे ही,
मैं भी,
तुम्हारी प्रतीक्षा में,
अनगिनत द्वारों सा खड़ा रहता हूँ.
फूटती धरती सा पड़ा रहता हूँ.
पतझर में भी, पंक्षी सा गा लेता हूँ,
खुद की कहानी खुद को सुना लेता हूँ.

सादर: अनन्त भारद्वाज

Tuesday, November 29, 2011

“ मैंने ये भी न पूछा.. ”

वफ़ा की परछाइयों   से ,
वो  आंधियां  आज भी चल रही थी ..
मैंने  ये  भी    पूछा  चिरागों  से ,
आज  तलक  कैसे  जल  रहे  हो ...

एक अरसे  से  नींद  की,
गोलियां  भी  असर  नहीं  दिखा  रही  थी ...
मैंने  ये  भी    पूछा  ख्वाबों   से ,
खुली  आँखों  में  कैसे  पल  रहे  हो ...

जिस्म  की  ये  मिटटी  ,
आंसुओं  में  भी  पत्थर  हो  रही  थी ..
मैंने  ये  भी   पूछा  खुद  से ,
वो  तो  नहीं  था तेरा  फिर  क्यूँ  हाथ  मल  रहे  हो ...

आज  मेरे  ज़ज्बातों  की ,
उमर  पूरी  हो  रही  थी  ...
मैंने  ये  भी    पूछा  सांसों   से ,
बिना  पैरों  के  कैसे  चल  रहे  हो ...

सादर: अनन्त भारद्वाज

वफ़ा की परछाई....



वफ़ा वो  कर  नहीं  पायी ,
बेवफा  मैं  उसे  कह  नहीं  पाया ..
वफ़ा  और  बेवफा  के  बीच  की  तकदीर  बचती  है ,
जिसे  मैं  वफ़ा  की परछाई  कहता  हूँ ..



आँगन  की  तुलसी  उलटी  गिनती  गिनती  है ,
और  कमरे  का  हर  कोना  खामोश  बैठा  है ..
मेरी   बेबसी  से  दरों - दिवार  रोती  है ,
जिसे  मैं  घर  की  तन्हाई  कहता  हूँ ...
  

एक  इशारे  पर  कीमती  सामान  आता  है ,
और  लाख  जिद्द  पर  भी  जरुरत  पूरी  नहीं  होती ..
इस   अमीरी  और  गरीबी  का  एक  हल  निकला  है,
जिसे  मैं  बाज़ार  की  महगाई  कहता  हूँ ...

 

पंजाब  और  लाहोरे  की  यहाँ  कितनी  बातें  है ,
और  कुछ   औकात  वाले  इन  बातों पे  लड़ते  है ...
फिर  भी  यहाँ  की  मिटटी  में  हर  रंग  शामिल  है ,
जिसे  मैं  मुल्क  की  अच्छाई  कहता  हूँ .....

सादर: अनन्त भारद्वाज

Monday, November 28, 2011

दूर जाकर भी तू मेरे ही पास है…


दूर जाकर भी तू मेरे ही पास है,
तेरी यादें ही मेरे लिए खास  है..

मेरे पास तो मेरा कुछ भी नहीं,
ये जिस्म खुदा का और तेरी दी सांस है;
दूर जाकर भी तू मेरे .............

जानता हूँ बखूबी तेरा  लौटना है मुश्किल 
फिर क्यूँ आज भी तेरे आने की आस है ? 
दूर जाकर भी तू मेरे .............

लोग कहते है बेवफा है तू,
मेरी वफ़ा आकर बता दे सब बकवास है..
दूर जाकर भी तू मेरे .............

कल तक था जो फूल गुलाब का, आज वो पलास है ,
क्यूंकि तू थी साथ में, और आज तेरी ही तलास है..
दूर जाकर भी तू मेरे .............

सादर: अनन्त भारद्वाज

Sunday, November 27, 2011

जब जानती थी सब…


 जब तुम ये जानती थी,, ..
कुछ समस्याओं का निवारण था 
मात्र यही एक कारन था.....
रात भर दिया जलता रहा..
खुद-ब -खुद बुझने के प्रयास करता रहा..

और ये भी तो .. कि,,,
किताब सिरहाने रखी रही..
चुप्पी साधे पड़ी रही,..
एक पन्ना भी नहीं पढ़ा मैंने ,
एक गीत भी नहीं गढ़ा मैंने.,

ये तो अब भी जानती हो,
रात भर नहीं झपकी थी पलक...
नितांत आकाश में देखता रहा फलक 
रात के हर पल, हर पहर,   
पढ़ी थी चादर बिस्तर पर, 
खुद अपनी कहानी कह रही थी   
चुपचाप हर करवट सह रही थी....

जब जानती थी सारे हाल, 
क्यूँ करती थी प्रतिपल सवाल..
जब जानती थी सब तो क्यूँ कहा?
तुम भूल गए हो परिभाषाएं प्रेम की..

सादर : अनन्त भारद्वाज 

Monday, November 21, 2011

" तेरी प्रतीक्षा "



अपने गीत " प्रतीक्षा " के अनुरोध पर मेरे आभासी काव्य संग्रह " प्रतीक्षा " से दूसरा गीत

कर रहा हूँ प्रतीक्षा मैं तेरी प्रिये ,
क्या तेरी स्थिति भी है ऐसी प्रिये?


प्रेम दर प्रेम परतें है चढ़ने लगी.
तू यौवन के रंगों में ढलने लगी

यूँ तो एक जन्म से ही तू मेरे साथ है.
सात जन्मों की गांठें  हो क्या बात है?


तेरा मेरा मिलन हो ये चाहत प्रिये,
दे रहा हूँ मैं देवों को दावत प्रिये.
कर रहा हूँ प्रतीक्षा......................

वर्ष और माह अब रीते लगने लगे,
झूले सावन के भी फीके पड़ने लगे


मेघों के इंतजार में मैं धरती हो गया,
आँखों  में स्वप्न लिए सागर सा सो गया..


वंदना में शीघ्र तुझे मांगता हूँ प्रिये,
विवशता तेरी जानता हूँ प्रिये..
कर रहा हूँ प्रतीक्षा.....................

सादर : अनन्त भारद्वाज

Friday, November 11, 2011

चंद शेर..


सूरज तो अभी छिपा नहीं, अभी कहाँ जाओगे?
और अब तो मय भी इतनी महंगी है, रोज़ कैसे पिलाओगे?
तुम्ही हो दोस्तों जो मुफ्त की पिलाकर भी, लड़खडाने तक साथ देते हो,
और एक वो है जो शक करके पूछते है, मुझे भूल तो नहीं जाओगे?
 सादर : अनन्त भारद्वाज


वक़्त बदल गया ; उसे तो बदलना था,
पर सूरज क्यूँ छिप गया बादलों में, उसे तो ढलना था...
फिर रात हुई और चाँद तारों के बिना ही निकला,
क्या तुझे नहीं लगता, बिछड़ने से पहले भी एक बार मिलना था..
 सादर : अनन्त भारद्वाज


हम जितने छोटे होते है, उतने अच्छे होते है..
जैसे घर में खेलते हुये नादान बच्चे होते है..
अब जब बड़े हो रहे है, तो सब अच्छा करो,
ये बात पक्की है  कि  दूसरे जनम होते है..
 सादर : अनन्त भारद्वाज

Tuesday, August 30, 2011

यमलोक में engineer साहब
















कथा है ये यमलोक की,
लहर दौड़ गयी थी शोक की,
कारण  था यमलोक का executive engineer,
जो समय से पहले काल का ग्रास हो गया,
और लेटेस्ट जोब्स में उसका पद खास हो गया..
ब्रह्माण्डलीय मंदी के चलते, 
ना चाहते ही भी यमराज ने निर्णय लिया, 
और एक experienced engineer भारतवर्ष  से बुला लिया,
भारत सरकार इससे बेहद परेशान थी, 
उसके बनाये सडकें और पुल देखकर हैरान थी..
हैरान यूँ थी की उद्घाटन से पहले ही पुल गिर जाते थे, 
और कमीशन भी engineer साहब  खुद डकार  जाते थे..
सडकें उखड गई ? चलो कोई बात नहीं..
ये कोन सी किसी के बाप की संपत्ति थी..?
पर सारा कमीशन खुद डकार जाए नेताओ को इसमें बड़ी आपत्ति थी..

इसलिए जल्दी से यमलोक में जुगाड़ लगाया 
और engineer साहब को join letter  थमाया.
जैसे- तैसे engineer साहब का यमलोक में आगमन हुआ..
दिल की गहराईयों से उनका स्वागत हुआ.. 
यमराज बोले- engineer साहब,
यहाँ डरने से कोई काम नहीं होता है..
यहाँ तो जिंदगी से रिटायर होने के बाद भी हिसाब-किताब होता है..


एक दिन यमराज engineer से मिलने आये.
और सरकारी फ्लैट का द्रश्य देख घबराए
द्रश्य था की पांच लोग फूलों की क्यारियों में पानी दे रहे थे,
चार मजदूर बंगले की सफाई कर रहे थे
गाड़ियों की तो आवास पर लाइन लगी थी..
और ड्राईवरो को पत्ते खेलने से फुर्सत नहीं थी..
लगभग इतने ही लोग किचिन  में चिकन बना रहे थे
कुछ सरकारी आदमी सरकारी कुत्तों को नहला  रहे थे..


यमराज गुस्से से भर गए,
और सरकारी आवास में घुस गए
अन्दर का दृश्य तो और भी विचित्र था..
P.A. लगा रहा था engineer के उबटन जैसा कोई चित्र था..
यमराज ने गुस्से में कह दिया,
माफ़ कीजिये बहुत सह  लिया.. 
हम पृथ्वी से engineer  बुला रहे है,
वो हमारे ही आदमियों को काम पर लगा रहे है..
आवास के बहार गाड़ियों की  लाइन देख चकरा रहा हूँ,
मैं बुद्धू हूँ जो युगों से भैंसे से काम चला रहा हूँ.
 तेरे जैसे इन्सान के लिए एक हल निकला है..
पूर्व स्वर्गीय engineer से तेरे खाते को exchange करने का ख्याल आया है
तू सुधरेगा नहीं ये मैं जानता हूँ..
आदत से मजबूर भारतीय है ये मैं मानता हूँ
तेरी दुकानदारी अब यहाँ नहीं चलेगी..
समस्त घोटालों कि सजा तुझको ही मिलेगी..
समस्त घोटालों कि सजा तुझको ही मिलेगी..


सादर : अनन्त भारद्वाज       

Wednesday, August 10, 2011

“ प्यार का हर एहसास ”

 


प्यार का हर एहसास  तेरी पलकों पर सजा दूंगा,
हर आंसू सोचता है  कि इन्हें पल में भिगा दूंगा ...
तू बस याद रख इतना कि आंसू बन नहीं पाएं,
मैं इनके कारखानों में इतनी हवा दूंगा....

प्यार का हर एहसास...........  

तुझे तेरी सहेली की कहानी भी रुलाती है,
और उस फटेहाल भिखारी पर दया भी खूब आती है..
कुछ कदम साथ चलकर ही तू साथ जो दे दे..,
आज फिर से इस जग को मैं इतना हँसा दूंगा...
प्यार का हर एहसास...........  

लबों ने क्या बिगाड़ा है, इन्हें इतना सताती है,                                  
इन्हें कुछ बोलना है आज, दिल क्यूँ दुखाती है ?
कंठ भी सूख जाये तेरा, अधरों को इतना थका दे....                                    
तेरी खातिर भगीरथ बन गंगा भी ला दूंगा.
प्यार का हर एहसास...........
 
सादर: अनन्त भारद्वाज
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