Wednesday, November 30, 2011

मैं भी तुम्हारी प्रतीक्षा में,


कई बार,
तुमने देखे होंगे,
त्यौहार के दिनों में,
अपनी लक्ष्मी का स्वागत करते 
खुद से थोड़ी दूर बनी रंगोली में रंग भरते,
सैंकडों स्वागत द्वार..     

और,
अक्सर
कई बार तो ,
राह चलते मिली होगी,
बरसात से पहले ,
पानी की व्याकुलता में जी रही ,
अपने फटे जख्मों को सीं रही , 
वो अभागिन धरती , 

पतझर का मौसम भी,
क्या याद है तुम्हें,
और वो अचानक से,
घर की बालकनी में,
छोटा सा पंक्षी,
जो गाता था गीत वियोग के,
इतनी तंगी में भी लाता था आंसू शोक के,

और हाँ,
वो सीमाहीन,
अनगिनत नदियों का,
अथाह जल लिए,
विशाल समुन्दर ,
आखिर वीरान रातों में,
अपने जल पर कितना दंभ भरता होगा ?
खुद की वीरानी खुद ही तो सुनता होगा..

ठीक वैसे ही,
मैं भी,
तुम्हारी प्रतीक्षा में,
अनगिनत द्वारों सा खड़ा रहता हूँ.
फूटती धरती सा पड़ा रहता हूँ.
पतझर में भी, पंक्षी सा गा लेता हूँ,
खुद की कहानी खुद को सुना लेता हूँ.

सादर: अनन्त भारद्वाज

Tuesday, November 29, 2011

“ मैंने ये भी न पूछा.. ”

वफ़ा की परछाइयों   से ,
वो  आंधियां  आज भी चल रही थी ..
मैंने  ये  भी    पूछा  चिरागों  से ,
आज  तलक  कैसे  जल  रहे  हो ...

एक अरसे  से  नींद  की,
गोलियां  भी  असर  नहीं  दिखा  रही  थी ...
मैंने  ये  भी    पूछा  ख्वाबों   से ,
खुली  आँखों  में  कैसे  पल  रहे  हो ...

जिस्म  की  ये  मिटटी  ,
आंसुओं  में  भी  पत्थर  हो  रही  थी ..
मैंने  ये  भी   पूछा  खुद  से ,
वो  तो  नहीं  था तेरा  फिर  क्यूँ  हाथ  मल  रहे  हो ...

आज  मेरे  ज़ज्बातों  की ,
उमर  पूरी  हो  रही  थी  ...
मैंने  ये  भी    पूछा  सांसों   से ,
बिना  पैरों  के  कैसे  चल  रहे  हो ...

सादर: अनन्त भारद्वाज

वफ़ा की परछाई....



वफ़ा वो  कर  नहीं  पायी ,
बेवफा  मैं  उसे  कह  नहीं  पाया ..
वफ़ा  और  बेवफा  के  बीच  की  तकदीर  बचती  है ,
जिसे  मैं  वफ़ा  की परछाई  कहता  हूँ ..



आँगन  की  तुलसी  उलटी  गिनती  गिनती  है ,
और  कमरे  का  हर  कोना  खामोश  बैठा  है ..
मेरी   बेबसी  से  दरों - दिवार  रोती  है ,
जिसे  मैं  घर  की  तन्हाई  कहता  हूँ ...
  

एक  इशारे  पर  कीमती  सामान  आता  है ,
और  लाख  जिद्द  पर  भी  जरुरत  पूरी  नहीं  होती ..
इस   अमीरी  और  गरीबी  का  एक  हल  निकला  है,
जिसे  मैं  बाज़ार  की  महगाई  कहता  हूँ ...

 

पंजाब  और  लाहोरे  की  यहाँ  कितनी  बातें  है ,
और  कुछ   औकात  वाले  इन  बातों पे  लड़ते  है ...
फिर  भी  यहाँ  की  मिटटी  में  हर  रंग  शामिल  है ,
जिसे  मैं  मुल्क  की  अच्छाई  कहता  हूँ .....

सादर: अनन्त भारद्वाज

Monday, November 28, 2011

दूर जाकर भी तू मेरे ही पास है…


दूर जाकर भी तू मेरे ही पास है,
तेरी यादें ही मेरे लिए खास  है..

मेरे पास तो मेरा कुछ भी नहीं,
ये जिस्म खुदा का और तेरी दी सांस है;
दूर जाकर भी तू मेरे .............

जानता हूँ बखूबी तेरा  लौटना है मुश्किल 
फिर क्यूँ आज भी तेरे आने की आस है ? 
दूर जाकर भी तू मेरे .............

लोग कहते है बेवफा है तू,
मेरी वफ़ा आकर बता दे सब बकवास है..
दूर जाकर भी तू मेरे .............

कल तक था जो फूल गुलाब का, आज वो पलास है ,
क्यूंकि तू थी साथ में, और आज तेरी ही तलास है..
दूर जाकर भी तू मेरे .............

सादर: अनन्त भारद्वाज

Sunday, November 27, 2011

जब जानती थी सब…


 जब तुम ये जानती थी,, ..
कुछ समस्याओं का निवारण था 
मात्र यही एक कारन था.....
रात भर दिया जलता रहा..
खुद-ब -खुद बुझने के प्रयास करता रहा..

और ये भी तो .. कि,,,
किताब सिरहाने रखी रही..
चुप्पी साधे पड़ी रही,..
एक पन्ना भी नहीं पढ़ा मैंने ,
एक गीत भी नहीं गढ़ा मैंने.,

ये तो अब भी जानती हो,
रात भर नहीं झपकी थी पलक...
नितांत आकाश में देखता रहा फलक 
रात के हर पल, हर पहर,   
पढ़ी थी चादर बिस्तर पर, 
खुद अपनी कहानी कह रही थी   
चुपचाप हर करवट सह रही थी....

जब जानती थी सारे हाल, 
क्यूँ करती थी प्रतिपल सवाल..
जब जानती थी सब तो क्यूँ कहा?
तुम भूल गए हो परिभाषाएं प्रेम की..

सादर : अनन्त भारद्वाज 

Monday, November 21, 2011

" तेरी प्रतीक्षा "



अपने गीत " प्रतीक्षा " के अनुरोध पर मेरे आभासी काव्य संग्रह " प्रतीक्षा " से दूसरा गीत

कर रहा हूँ प्रतीक्षा मैं तेरी प्रिये ,
क्या तेरी स्थिति भी है ऐसी प्रिये?


प्रेम दर प्रेम परतें है चढ़ने लगी.
तू यौवन के रंगों में ढलने लगी

यूँ तो एक जन्म से ही तू मेरे साथ है.
सात जन्मों की गांठें  हो क्या बात है?


तेरा मेरा मिलन हो ये चाहत प्रिये,
दे रहा हूँ मैं देवों को दावत प्रिये.
कर रहा हूँ प्रतीक्षा......................

वर्ष और माह अब रीते लगने लगे,
झूले सावन के भी फीके पड़ने लगे


मेघों के इंतजार में मैं धरती हो गया,
आँखों  में स्वप्न लिए सागर सा सो गया..


वंदना में शीघ्र तुझे मांगता हूँ प्रिये,
विवशता तेरी जानता हूँ प्रिये..
कर रहा हूँ प्रतीक्षा.....................

सादर : अनन्त भारद्वाज

Friday, November 11, 2011

चंद शेर..


सूरज तो अभी छिपा नहीं, अभी कहाँ जाओगे?
और अब तो मय भी इतनी महंगी है, रोज़ कैसे पिलाओगे?
तुम्ही हो दोस्तों जो मुफ्त की पिलाकर भी, लड़खडाने तक साथ देते हो,
और एक वो है जो शक करके पूछते है, मुझे भूल तो नहीं जाओगे?
 सादर : अनन्त भारद्वाज


वक़्त बदल गया ; उसे तो बदलना था,
पर सूरज क्यूँ छिप गया बादलों में, उसे तो ढलना था...
फिर रात हुई और चाँद तारों के बिना ही निकला,
क्या तुझे नहीं लगता, बिछड़ने से पहले भी एक बार मिलना था..
 सादर : अनन्त भारद्वाज


हम जितने छोटे होते है, उतने अच्छे होते है..
जैसे घर में खेलते हुये नादान बच्चे होते है..
अब जब बड़े हो रहे है, तो सब अच्छा करो,
ये बात पक्की है  कि  दूसरे जनम होते है..
 सादर : अनन्त भारद्वाज
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