Tuesday, January 31, 2012

मेरी प्रकाशित रचनाएँ

(1) आज का दिन भी बहुत अच्छा रहा...
बहुत बहुत धन्यवाद Vishal Gupta, जिनके द्वारा मुझे मेरे जन्मदिन पर प्रेषित अमूल्य उपहार की प्राप्ति हुई - हरिवंशराय बच्चन की "मेरी श्रेष्ठ कवितायेँ " पुस्तक |

और मेरी दो रचनाओं को वेब पत्रिका "रचनाकार" द्वारा सराहा गया और प्रकाशित किया गया..
आप भी पढ़िए और मुझे अपनी राय दीजिए..
पढ़ने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक कीजिये..
                                                                                                              ( 31 january 2012, 8:34pm )


उनमे से एक लिंक ये भी था,,मेरी एक कविता जिसने मुझे "नव्या पब्लिकेशन " के साहित्यकारों की सूची में खड़ा किया..आप भी पढ़िए और मुझ तक अपनी प्रतिक्रियाएं भेजिए.

मेरी एक कविता के लिए चले आइये.. लिंक पर क्लिक कीजिये..
1.   तुम तो भूल गई थी शायद

                                                                                                                 ( 17 feb, 2012, 10:05 pm )

(3) कई वरिष्ठ कवि एवं लेखकों जो कि अच्छे साहित्यकार के रूप में कार्य कर रहे है,
उनके साथ मेरी एक प्रिय कविता "स्मृतियाँ " छपी है..


क्रमांक - 15. अनंत भारद्वाज

                                                                                                 ( 16 feb, 2012 )



Friday, January 20, 2012

कुछ सामान तो होना चाहिए

बेरोजगारी की समस्या कोई "आम" और "नयी" बात नहीं.. और हमारी सरकार इतने ठोस कदम उठा रही है,
कि अगर किसी ने कुछ कहा तो उसे संघ का सदस्य बताया जायेगा, जैसे संघ कोई क्रन्तिकारी "आतंकवादियों" का संगठन हो, खैर छोडो बेरोजगारी तो बहुत दूर वो तो पीने का पानी भी मुहैया नहीं करा पाए है, और १५ रुपये की "बिस्लरी" की बोतल पर कहते है, हमने तरक्की कर ली...
मुद्दे पर आता हूँ, कुछ समय पहले ट्रेन से यात्रा कर रहा था, कुछ बेरोजगार नवयुवकों को बातें करते सुना था,
बहुत परेशान थे | शायद अपने पिता के लाखों रुपये फूंक देने के बाद भी कोई नौकरी न होना ही एक मात्र कारण था |
सचमुच वो व्यक्ति इतना थक चुका था, की उसकी जिंदगी जीने की चाह भी जा रही थी |
मैं नहीं जानता कि उसने क्या किया होगा ?
एक गज़ल लिखने कि कोशिश भर कर पाया.....


करो जिद्, सजाओ कमरा, कुछ सामान तो होना चाहिए,
पढ़े लिखे फकीरों में मेरा नाम तो होना चाहिए|

दौलत क्या चीज़ पता न था, शौहरत कमाने में रहा,
शौहरत कमाकर थक गया कुछ आराम तो होना चाहिए|

कल ही सुना था घर के इक शख्स से वो लब्ज़,
तालीम लेकर थक गया कुछ काम तो होना चाहिए|

इंसान भी अब बिक रहा है, काश सच हो ये खबर, 
धो लूं मुँह, मेरा भी कुछ दाम तो होना चाहिए|

सादर:अनन्त भारद्वाज

Monday, January 02, 2012

अब ट्रेन के पहिये कुछ थम रहे थे


हाल ही में ट्रेन से सफर करने का मौका आया,
रास्ता लंबा था, और ये कड़क ठण्ड..
माँ सरस्वती की कृपा से एक नयी कविता लिख पाया : 



एक सर्द रात के बाद,
कुछ अलसाई-सी धूप करवट बदल रही थी,
सैकडों जिन्दा कहानियों को लेकर,
ट्रेन वैसे ही रुक रुक के चल रही थी |

कुछ-एक बच्चों का झुण्ड,
आपस में खेल-खिलखिला रहा था,
अपने अपने नए गर्म कपड़ों पे इतरा रहा था |
कोई नन्हे हाथों से,
अपनी टोपी उतारने का प्रयास कर रहा था,
तो कोई माँ के हाथों से बने,
स्वेटर में चमकते बटन को निहार रहा था | 

चाय-चाय की वो आवाज़,
बर्थ से नीचे उतारने लगी |
स्टेशन का नाम देखने बुद्धि,
खिडकी के बाहर झाँकने लगी | 
गंतव्य है बहुत दूर ये सोचकर,
बुझे मन से ट्रेन के अंदर ही नज़र दौडाई,
कि हर एक कहानी देखकर खुशी फिर से लौट आई |

एक जवान की दो बेटियाँ,
जो समय से पहले यौवन की सीढियाँ चढ रहीं थीं,
खुद के चतुर होने को हर पल प्रमाणित कर रहीं थीं | 
एक जवान का, तो दूसरी माँ का,
पूरा पक्ष ले रही थी,
बड़ी शायद सचमुच बड़ी थी,
तभी नैतिकता की दलीलें दे रही थी |

और तीन नौजवान पूरी रात,
खुद के खर्चीलेपन पर दंभ तो भर रहे थे, 
पर चाय की चुस्कियों, चिप्स के पैकेटों के साथ,
बेरोजगारी की बातें कर रहे थे |

कुछ बुजुर्गों का गुट,
अपने अनुभवों से राजनेताओं पर आरोप मढ़ रहा था,
कुछ संभव तो कुछ असंभव आयाम गढ़ रहा था |
कई घटनाओं,
तारीखों से भरा मन गागर था |
कुछ उनसे सुनना, कुछ कहना था,
पर ध्यान क्यूँ खिडकी से बाहर था?

सुईयां देखने का भी कोई फायदा नहीं,
जैसे सर्दियों में,
गाड़ी और समय का कोई वायदा नहीं |
पर आज मन "हमेशा-जैसानहीं है,
क्यूँ कि कोई हाथों में चोकलेट लिए,
बैठी है इंतज़ार में,
अकेली? सुबह से ही?
स्टेशन पर या प्लेटफोर्म टिकेट की कतार में?
अब ट्रेन के पहिये कुछ थम रहे थे
और लाखों सवाल धड-धड कर रहे थे|

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