Monday, January 02, 2012

अब ट्रेन के पहिये कुछ थम रहे थे


हाल ही में ट्रेन से सफर करने का मौका आया,
रास्ता लंबा था, और ये कड़क ठण्ड..
माँ सरस्वती की कृपा से एक नयी कविता लिख पाया : 



एक सर्द रात के बाद,
कुछ अलसाई-सी धूप करवट बदल रही थी,
सैकडों जिन्दा कहानियों को लेकर,
ट्रेन वैसे ही रुक रुक के चल रही थी |

कुछ-एक बच्चों का झुण्ड,
आपस में खेल-खिलखिला रहा था,
अपने अपने नए गर्म कपड़ों पे इतरा रहा था |
कोई नन्हे हाथों से,
अपनी टोपी उतारने का प्रयास कर रहा था,
तो कोई माँ के हाथों से बने,
स्वेटर में चमकते बटन को निहार रहा था | 

चाय-चाय की वो आवाज़,
बर्थ से नीचे उतारने लगी |
स्टेशन का नाम देखने बुद्धि,
खिडकी के बाहर झाँकने लगी | 
गंतव्य है बहुत दूर ये सोचकर,
बुझे मन से ट्रेन के अंदर ही नज़र दौडाई,
कि हर एक कहानी देखकर खुशी फिर से लौट आई |

एक जवान की दो बेटियाँ,
जो समय से पहले यौवन की सीढियाँ चढ रहीं थीं,
खुद के चतुर होने को हर पल प्रमाणित कर रहीं थीं | 
एक जवान का, तो दूसरी माँ का,
पूरा पक्ष ले रही थी,
बड़ी शायद सचमुच बड़ी थी,
तभी नैतिकता की दलीलें दे रही थी |

और तीन नौजवान पूरी रात,
खुद के खर्चीलेपन पर दंभ तो भर रहे थे, 
पर चाय की चुस्कियों, चिप्स के पैकेटों के साथ,
बेरोजगारी की बातें कर रहे थे |

कुछ बुजुर्गों का गुट,
अपने अनुभवों से राजनेताओं पर आरोप मढ़ रहा था,
कुछ संभव तो कुछ असंभव आयाम गढ़ रहा था |
कई घटनाओं,
तारीखों से भरा मन गागर था |
कुछ उनसे सुनना, कुछ कहना था,
पर ध्यान क्यूँ खिडकी से बाहर था?

सुईयां देखने का भी कोई फायदा नहीं,
जैसे सर्दियों में,
गाड़ी और समय का कोई वायदा नहीं |
पर आज मन "हमेशा-जैसानहीं है,
क्यूँ कि कोई हाथों में चोकलेट लिए,
बैठी है इंतज़ार में,
अकेली? सुबह से ही?
स्टेशन पर या प्लेटफोर्म टिकेट की कतार में?
अब ट्रेन के पहिये कुछ थम रहे थे
और लाखों सवाल धड-धड कर रहे थे|

7 comments:

priyarawat said...

bahut khoob kavi anant...shayad hamare mann ko paddh liya kabhi tumne...hum kabse sochte the ki ek baar to train me safar karna hai...jo kabhi ho hi nahi paya..aaj tumhari kavita paddhkar laga hum train me hai....bahut khoob....happy2012:)

priya rawat said...

bahut khoob kavi anant...shayad hamare mann ko paddh liya kabhi tumne...hum kabse sochte the ki ek baar to train me safar karna hai...jo kabhi ho hi nahi paya..aaj tumhari kavita paddhkar laga hum train me hai....bahut khoob....happy2012:)

मुन्तज़िर फ़िरोज़ाबादी said...

बहुत बहुत धन्यवाद प्रिया जी, बस आप सभी का स्नेह ही है जो मुझे निरंतर लिखने को प्रेरित करता है, आपके अमूल्य कमेंट्स के बिना इनका कोई मतलब नहीं रह जाता |

अमित वर्मा said...

बहुत सुन्दर, सही लिखा है आपने, दलीले देना और आरोप प्रत्यर्पण करना सब चाहते है पर कीचड़ में उतर कर उसे साफ कोई नहीं करना चाहता है.....

meenakshi singh said...

kya likh diya aapne ,laga us train me main bhi thi jo tumhare mann ki stithi ko paddh rahi thi vaha baithe baitthe..........achchi kavita hai...kavi ka mann paddhkar achcha lagta hai...uski soch kagaj par iss tarah paddhkar achcha sach me achcha lagta hai....baddhiya likha

om prakash tiwary said...

bahut hi sajiv chitran .......bhartiya jeevan me rail ka mahatva thik usi tarah se hai jaise maharana pratap ka chetak se..... ek alag duniya alag log ....fir batchit ka silsila......idhar udhar ki taka jhanki bilkul adbhut jhalki rail jeewan ki .....bahut bhut badhai.....

मुन्तज़िर फ़िरोज़ाबादी said...

ji bahut bahut dhanyawad ji, aapka bahut bahut aabhar :)

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