मैंने कई बार श्रृंगार की कवितायेँ लिखीं, पर कहीं न कहीं ऐसा लगा कि एक कवि का राष्ट्रधर्म उस पर हावी हो रहा है, और हो भी क्यूँ न ? 'राष्ट्रकवि' मैथिलीशरण गुप्त कहते है “वह ह्रदय नहीं पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ”
कविता के माध्यम से मैंने एक गीतकार, चित्रकार, शिक्षक और नवयुवक की उस मनोदशा को कहा है, जो अपनी प्रेमिका से माफ़ी चाहते हैं, क्यूंकि उनका राष्ट्रधर्म उन्हें बुला रहा है | कविता एक प्रयोग है, जिसमें ४ पंक्तियाँ श्रृंगार में और ४ पंक्तियाँ ओज में व्यक्त की हैं | प्रयोग कहीं ठीक-ठीक हुआ हो तो आपका आशीष चाहता हूँ | कविता का एक अंश प्रस्तुत है, आपकी प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं, तो जल्द ही इसे पूर्ण करूँगा -
मेघ-मल्हारों, कोयल-पंछी,
वाले राग सुनाऊँ मैं |
पर तुम मुझको माफ करो,
मैं राग नहीं गढ़ सकता हूँ |
भारत माता पीड़ा में है,
गान नहीं लिख सकता हूँ ||
मेरी भी चाहत है ऐसी,
तुझ पर ही मिट जाऊं मैं |
तेरा ही चित्र बनाऊँ मैं |
पर तुम मुझको माफ करो,
मैं रंग नहीं भर सकता हूँ |
मुझको जयचंदों से लड़ना है,
बस धरा लाल कर सकता हूँ ||
मेरी भी चाहत है ऐसी,
तेरा नाम पढाऊँ मैं |
कुमकुम-अक्षत, कंगन-बिंदिया,
से तेरा रूप सजाऊँ मैं |
पर तुम मुझको माफ करो,
मैं रूप सजा नहीं सकता हूँ |
माँ पर कालिख पोती गयी,
वो बात भुला नहीं सकता हूँ ||
मेरी भी चाहत है ऐसी,
चाँद-सितारे लाऊँ मैं |
प्रेम-ज्ञान मुझको भी आता,
संग चलूँ सिखलाऊँ मैं |
पर तुम मुझको माफ करो,
मैं साथ नहीं चल सकता हूँ |
माँ बेटों से छली गई,
आघात नहीं सह सकता हूँ ||
सादर : अनन्त भारद्वाज