Tuesday, May 08, 2012

मेरी भी चाहत है ऐसी...

मैंने कई बार श्रृंगार की कवितायेँ लिखीं, पर कहीं न कहीं ऐसा लगा कि एक कवि का राष्ट्रधर्म उस पर हावी हो रहा है, और हो भी क्यूँ न ? 'राष्ट्रकवि' मैथिलीशरण गुप्त कहते है वह ह्रदय नहीं पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं
कविता के माध्यम से मैंने एक गीतकार, चित्रकार, शिक्षक और नवयुवक की उस मनोदशा को कहा है, जो अपनी प्रेमिका से माफ़ी चाहते हैं, क्यूंकि उनका राष्ट्रधर्म उन्हें बुला रहा है | कविता एक प्रयोग है, जिसमें ४ पंक्तियाँ श्रृंगार में और ४ पंक्तियाँ ओज में व्यक्त की हैं | प्रयोग कहीं ठीक-ठीक हुआ हो तो आपका आशीष चाहता हूँ | कविता का एक अंश प्रस्तुत है, आपकी प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं, तो जल्द ही इसे पूर्ण करूँगा -

मेरी भी चाहत है ऐसी,
तुझ पर गीत लिखूँ और गाऊँ मैं |
मेघ-मल्हारों, कोयल-पंछी,
वाले राग सुनाऊँ मैं |
पर तुम मुझको माफ करो,
मैं राग नहीं गढ़ सकता हूँ |
भारत माता पीड़ा में है,
गान नहीं लिख सकता हूँ ||

मेरी भी चाहत है ऐसी,
तुझ पर ही मिट जाऊं मैं |
मुझको हर पल चाहने वाली,
तेरा ही चित्र बनाऊँ मैं |
पर तुम मुझको माफ करो,
मैं रंग नहीं भर सकता हूँ |
मुझको जयचंदों से लड़ना है,
बस धरा लाल कर सकता हूँ ||

मेरी भी चाहत है ऐसी,
तेरा नाम पढाऊँ मैं |
कुमकुम-अक्षत, कंगन-बिंदिया,
से तेरा रूप सजाऊँ मैं |
पर तुम मुझको माफ करो,
मैं रूप सजा नहीं सकता हूँ |
माँ पर कालिख पोती गयी,
वो बात भुला नहीं सकता हूँ ||

मेरी भी चाहत है ऐसी,
चाँद-सितारे लाऊँ मैं |
प्रेम-ज्ञान मुझको भी आता,
संग चलूँ सिखलाऊँ मैं |
पर तुम मुझको माफ करो,
मैं साथ नहीं चल सकता हूँ |
माँ बेटों से छली गई,
आघात नहीं सह सकता हूँ ||

सादर : अनन्त भारद्वाज 

Saturday, May 05, 2012

यूँ न दीपक जला

एक पंक्ति जो शायद आज-कल प्रत्येक लड़की कहती है “सारे लड़के एक जैसे होते है” ; मेरे मन में अक्सर खटकती है | तब पहली बार पुरुष के समर्थन में और इस पंक्ति के विरोध में एक गीत लिखा | गीत को पढ़ने से पहले कुछ इसकी भूमिका के बारे में कह दूँ, ताकि बात सीधी-सीधी आप तक पहुँचे | गीत के माध्यम से एक नवयुवक लड़कियों द्वारा किये गए भावनात्मक शिकार से बचना चाहता है, जो कहीं न कहीं उन्हें रिझाने का प्रयास करतीं है | परन्तु वह प्रकृति के नियमों से भी वाकिफ़ है | इसलिए अंत में एक समझौता करता है कि कुछ तुम बदलो, कुछ हम | प्रेम को एक आदर्श रूप में प्रस्तुत किया जाये, ताकि उसमें प्रदर्शन नहीं, दर्शन दिखे, लोगों को सीख मिले और नयी संस्कृति को आयाम |
गीत प्रस्तुत है - 


लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, पंजाब में काव्य - पाठ

यूँ न दीपक जला, मन मेरा मनचला,
आँसू जब-जब गिरेंगे, ये बुझ जायेगा |
मैं पुरुष हूँ सदा, मेरे मन की व्यथा,
क्यूँ इतिहास में हर कली को ठगा?
न फूलों का मोह, फिर क्यूँ भँवरा बनूँ,
ये कलंक है जो आज मिट जायेगा |
यूँ न दीपक जला, मन मेरा मनचला,
आँसू जब-जब गिरेंगे, ये बुझ जायेगा |

न पतंगे उड़ा, ना हीं पल्लू घुमा,
एक तपस्वी भी कब तक बचा था भला?
जो उर्वशी-सी लगीं, मेनका-सी सजीं,
तो निमंत्रण यूँ मुझको फिर मिल जायेगा |
यूँ न दीपक जला, मन मेरा मनचला,
आँसू जब-जब गिरेंगे, ये बुझ जायेगा |

प्रेम यदि हो प्रिये, भाव-समर्पण प्रिये,
जब हो मीरा दिवानी, राधे रानी प्रिये,
अर्चना तब करूँ, बनके थाली सजूँ
सैकड़ो ज्योति का दीप जल जायेगा |
यूँ न दीपक जला, मन मेरा मनचला,
आँसू जब-जब गिरेंगे, ये बुझ जायेगा ||

सादर : अनन्त भारद्वाज 

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