Wednesday, July 25, 2012

' परिंदा '



पिंजरा खोला देखा मैंने, उसे आस नहीं थी उड़ने की,
जिद्द शायद खो दी थी उसने, सलियों से लड़ मरने की,
ये गम था एक परिंदे का, या गम की एक गवाही थी,
क्या सच में उड़ना भूल गया, या फिर उसकी चतुराई थी ?

कैसे आखिर बंद हुआ ये, कैसे किस्मत इसकी छली गयी?
कैसे आखिर जी लेता है, जब खुशियाँ इसकी चली गयीं ?
ये भूल चुका है, चिर-परिचित और मित्रों की भाषाओँ को,
या माँ के दाना लाने को और उन पेड़ों की शाखाओं को ?
ये गम था एक परिंदे का...........................
क्या सच में उड़ना भूल गया......................

अपने पंखो से नापी दुनिया इसको सही - सही लगती है,
ख़ामोशी भी इसकी जैसे गाथा कही - कही लगती है |
खुला गगन और मुक्त पवन, अब तो कुछ भी रहा नहीं,
आखिर हम क्या सहते है, जब इसने कुछ भी कहा नहीं |
ये गम था एक परिंदे का...........................
क्या सच में उड़ना भूल गया.......................

2 comments:

मुन्तज़िर फ़िरोज़ाबादी said...

“गर किसी परिंदे पर करोगे महीनों शोध, तो ये जान पाओगे |
हो भले सितम औ दासता की बेड़ियाँ, दार्शनिक बन जाओगे ||”

kanu..... said...

nice poem

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