Tuesday, September 18, 2012

एक कवि सम्मेलन के दौरान (हिंदी दिवस - १४ सितम्बर २०१२)




(1) चंद अल्फाज़ उर्दू के बताएँगे भला कैसे ?

चंद अल्फाज़ उर्दू के बताएँगे भला कैसे ?
गज़ल तालीम है मेरी, या मैं कह नहीं सकता |

पहाड़ों से निकलता हूँ, हाँ दरिया नाम है मेरा,
समुन्दर कह रहा था कल, कि मैं बह नहीं सकता |

मुझपे मंदिर बनाओ तुम, मुझपे मस्जिद बनाओ तुम,
बुनियादी काम है मेरा, तोड़ो मैं ढह नहीं सकता |

जिस्म पर ज़ख्म खाऊँगा, थोड़ी मरहम लगाऊँगा,
दिलों में घात ना करना, मैं अब सह नहीं सकता |

अमीरों का हुनर देखो, ये दौलत क्या सिखाती है?
कोशिश है मुँह-भराई की, मगर चुप रह नहीं सकता |

(2) शौक अब भी पुराने रखता हूँ

मैं यूँ तो शौक अब भी पुराने रखता हूँ
तेरी खातिर खुद की जिद पे पैमाने रखता हूँ |

बस जरा मजबूर हूँ, इश्क में मगरूर हूँ,
जैसे-जैसे करती है, सारे बहाने रखता हूँ | 

ऐरे-गैर शायर हो गए, घूँट पीके जाम के,
उनसे नशीला जाम क्या ? मैखाने रखता हूँ |

(3) गज़लों में अपनी तुम, मेरा जब नाम लिखना

गज़लों में अपनी तुम, मेरा जब नाम लिखना,
वही मौसम, वही दरिया, वही पैगाम लिखना |

खत तो मिलते रहते हैं, इश्क औ मोहब्बत के,
जिस भी खत से आए खुशबू, मेरा ईनाम लिखना |

कैसे खुश रहता हूँ, उस साकी की बातों पर,
टूट जाओ खुद ही, तो नशीला जाम लिखना |

सच्चाई को झूठ, समझने वाले ज्यादा हैं,
तुम शाम को सुबह, सुबह को शाम लिखना |

कतारों में मिलेंगे, तुझको तेरे चाहने वाले,
ज़रा सी चूक करना, मुझे बदनाम लिखना |

कहीं गफ़लत न हो जाए, ए सल्तनत वालों,
खास को खास, आम को आम लिखना |

© अनन्त भारद्वाज

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