Saturday, January 05, 2013

ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ

आज के परिवेश में जो युवा वर्ग अपने संस्कारों और संस्कृति के मूल्यों से पिछड़ रहा है उसमें कहीं न कहीं हमारी उस पीढ़ी का भी दोष है, जो युवाओं को नाकारा बताती है, उन्हें धूर्त समझती है | वो पीढ़ी भी तो वही चाहती है कि उसके बेटा/बेटी एक अच्छी सी नौकरी पाकर समाज में ठाठ-बाट से रहे | क्या जरुरत है भगत, सुभाष, आजाद या बिस्मिल बनने की ? भले ही आज़ाद भारत में आज़ादी बस नाम तक सीमित हो |
ऐसे ही विचार रहे तो शायद वो दिन दूर नहीं जब इतिहास खड़ा होकर रोए और हम सब पर मूक-दर्शक बने रहने के अलावा और कोई विकल्प ही न हो | तब दोनों पीढ़ियों के बीच खड़े होकर मैंने एक कविता लिखी है, आप लोगों का आशीष चाहूँगा - 

कुंठित मिला है मुझको, राही हरेक पथ पर |
अब तक जो लड़ रहा है, गाँधी-सुभाष हठ पर ||
बंदूकें खेत में जब, इक भगत बो रहा था |
कुनवा था खानदानी, जो पानी दे रहा था ||
उस वक्त हर पिता का, परिवेश मौन ना था |
घर-घर से एक बच्चे, का खून खौलना था ||
गुरु-दशम सजा रहे थे, भाल भारती का |
सिंह-पुत्र बढ़ा रहे थे, मान आरती का ||
आलस को त्याग दो तुम, मैं ओज चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ ||१||

पश्चिम से आ रहीं हैं, अवसाद की हवाएं |
वो राह ही भली थी, दीपक चलो जलाएं ||
ऐसे भरम में पड़कर, उनको लजा रहे हो |
चिताएं वीरों की, सचमुच जला रहे हो ||
इक था अटल हिमालय, वो भी हिल रहा है |
गंगा डरी हुई है, सम्मान डर रहा है ||
नारी को ढूँढने में, वानर लगा हुआ है |
तब भी लगा हुआ था, अब भी लगा हुआ है || 
लक्ष्मण रहो न मूर्छित, मैं होश चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ ||२||

भटकी हुई दिशाएं, भटका हुआ सवेरा |
चारों तरफ कुहासा, चारों तरफ अँधेरा ||
सूरज-औ-चाँद की अब, लाशें निकल रहीं हैं |
देश-प्रेम की तरंगे, असहाय जल रहीं हैं ?
इनको शिवाजी की, तलवार दिखानी है |
औ पदमिनी-जौहर की, याद दिलानी है ||
इतिहास सिखाता है, चाहें जब पढ़ लेना |
हाड़ा-रानी वाला पन्ना, जीवन में गढ़ लेना ||
श्रृंगार हो चुका अब, आक्रोश चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ ||३||

अमृत था जल यहाँ का, श्रृद्धा से पी रहे थे |
सत्कार था अतिथि का, भगवान कह रहे थे ||
पंक्षी थे सोने के हम, सिंहो से खेले थे हम |
जख्म छातियों पर, खुशियों से झेले थे हम ||
माँ भारती का दामन, हर कोई नोंचता है |
जयचंद धन बनाकर, गैरों को सौंपता है ||
चोरों के सीने में तुम, हर प्रहार कर दो |
मेहनत से अपने, जख्मों को आज भर दो ||
लक्ष्मी कुबेर सा अब, मैं कोष चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ ||४||

निष्ताप तेज रवि का, क्यूँ आज ढल चुका है ?
या आवरण में कोई, ग्रहण पल चुका है ?
यह नाश है मनुज का, मानवता रो पड़ी है |
क्या युगपुरुष की भी, छाती छली पड़ी है ?
घर में तुम्हारे तुमको, सेवक कोई बनाये |
रोटी न दे मेहनत की, बेटी से खेल जाए ||
बाहुबली के बल की, पहचान करानी हैं |
ये भूली-बिसरी बातें, बस याद दिलानी हैं ||
शोषित जगाओ खुद को, मैं रोष चाहता हूँ |
ढलती जवानियों में, वही जोश चाहता हूँ ||५||

सादर : अनन्त भारद्वाज 

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