Friday, February 14, 2014

ना देखा झील की तरफ़ ना चाँद पर पड़ी नज़र

बहुत दिनों बाद आपकी खिदमत में एक गीत.... (ऐसे पढ़िए जैसे कोई पुरानी फिल्म का गाना हो )
Muntazir Firozabadi (Anant Bhardwaj)

ना देखा झील की तरफ़ ना चाँद पर पड़ी नज़र
रात भर नहाया चाँद और गिर पड़े कई शज़र
धुआँ धुआँ उठे जो बादल हम उन्हीं में खो गए
ना जाने कौन आ गया ना जाने किसके हो गए

ये वादियाँ चिनार की ये महफ़िलें बहार की
इन्हें न तुम कहो कुछ ये रौनकें हैं यार की
ना चाँदनी सी रात थी न उसमें कोई बात थी
हम हीं थके थके से थे कि आते ही.. सो गए
ना जाने कौन आ गया ना जाने किसके हो गए

खुद से ही हम पूछ बैठे अब जीके क्या करें
तमाम उमर तो गुज़र दी अब मरें या ना मरें
हैं किस तरह के ये सवाल... बेव.कू..फी. भरे
हँसते हँसते पलकों के किनारे पल में रो गए
ना जाने कौन आ गया ना जाने किसके हो गए

पैरों में पड़े सितारे शाल में वो जड़ गए
जो छूना चाहा उनको तो वो आप आप बढ़ गए
सुना है लोग कहते हैं वो आसमां से आए थे
बड़े अजीब लोग थे वो आके ज़ख्म धो गए
ना जाने कौन आ गया ना जाने किसके हो गए


Sunday, February 02, 2014

मुन्तज़िर फिरोज़ाबादी साहब की इक नज़्म : रात कैसे लड़े

रात कैसे लड़े

सवेरा रोज देता है नसीहतें
और तमाम भडकाऊ भाषण
रात के खिलाफ़
मगर ये रात की बेबसी है कि वो
करे भी तो क्या करे
उसके साथ हैं कौन ?
बस ये गए गुज़रे

रात होती है तो
तमाम फकीर आराम से सो लेते हैं
और
तमाम इश्कज़ादे मुंह ढक के रो लेते हैं
ये बात और है
उन्हें चाँद से मोहब्बत की
ये बीमारी दिन में लगी थी

रात होती है तो
किसी की कोई
तस्वीर किसी को संभाल लेती है
और
उस तरह की औरत
अपने पेट को पाल लेती है
ये बात और है
कि उसने सुन लिया था खुदखुशी से बेहतर है
जिंदगी से जंग जारी रखना

रात होती है तो
एक माँ अपने बच्चे को लोरी सुनाती है
और
एक अपने बच्चे को सितारे से बुलाती है
ये बात और है
कि उसे डर है उन पहरेदारों से
जो जीते हुए आदमियों को उठा लेते हैं

रात कैसे लड़े
अब इस सवेरे से
लड़ने वाले तो काम पर निकल गए

मुँह-अँधेरे से 
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